Wednesday, February 1, 2012

90-B खत्म, 90-A लागू

जयपुर 01Feb2012

राज्य सरकार ने कृषि भूमि रूपान्तरण की धारा 90-बी खत्म कर दी है। इसकी जगह अब 90-ए प्रभावी होगी। इसमें 90-बी के कई प्रावधान जोड़े जाएंगे। साथ ही कुछ नए प्रावधान भी जुड़ेंगे। अब नगरीय क्षेत्रों में मास्टर प्लान में दिखाए भू उपयोग के अनुसार ही भू रूपान्तरण हो सकेगा। प्लान के विरूद्ध रूपान्तरण नहीं हो सकेगा। सरकार भी किसी तरह की छूट नहीं दे पाएगी। इससे शहरों का मास्टर प्लान के मुताबिक सुनियोजित विकास हो सकेगा। जहां जेडीए, यूआईटी नहीं है वहां नगर पालिका, परिषद व निगम के अफसरों को कृषि भूमि रूपान्तरण का अघिकार मिलेगा।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अध्यक्षता में बुधवार को हुई मंत्रिमण्डल की बैठक में राजस्थान भू-राजस्व अघिनियम की धारा 90-बी को खत्म करने का फैसला हुआ। मुख्यमंत्री ने भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए 90-बी खत्म करने का ऎलान किया था। मंत्रिमण्डल ने धारा 90-ए में संशोधन कर स्कीम प्लान के अनुसार ही भू रूपान्तरण का निर्णय किया। एसीएस नगरीय विकास पी. के. देब ने बताया, इससे मास्टरप्लान से छेड़छाड़ पर लगाम लगेगी। यह प्रावधान सभी नगरीय क्षेत्रों में लागू होगा।
शहरी निकायों को मिले अघिकार
नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल ने बताया, नगरीय क्षेत्र में जिला प्रशासन के बजाय शहरी निकाय के अघिकारी कृषि भूमि रूपान्तरण कर सकेंगे। इसके लिए नगर निगम, पालिका व परिषद के अघिशासी अघिकारी व आयुक्त को अघिकृत किया जाएगा। इनके निर्णयों के खिलाफ संभागीय आयुक्त के बजाए अब जिला कलक्टर या उसके समकक्ष अघिकारी के यहां 30 दिन में अपील की जा सकेगी, जिसे अपीलीय अघिकारी को 60 दिन में निपटाना होगा। ऎसा नहीं करने पर अघिकारी को स्पष्टीकरण देना होगा।
आम शहरी का फायदा क्या?
90 ए के तहत भू रूपान्तरण की प्रक्रिया के सरलीकरण के लिए जल्द ही नियम बनाकर अघिसूचना जारी की जाएगी। मास्टरप्लान के मुताबिक आवास के लिए जरूरतमंद आम शहरी को आधारभूत सुविधा युक्त अपेक्षाकृत सस्ते भूखण्ड मिल सकेंगे। मास्टरप्लान में आवासीय उपयोग के लिए स्थान निर्घारित होने के कारण विकासकर्ता वहीं आवासीय योजनाएं लाएंगे। विशेषज्ञों के अनुसार एक ही स्थान पर योजनाएं होने के कारण दर को आपस में प्रतिस्पर्घा होगी। इस प्रतिस्पर्घा का खरीदार को लाभ मिलेगा। दूसरी तरफ ऎसी भूमि के खातेदारों को भी फायदा होगा। वे मनमानी कीमत पर विकासकर्ता को जमीन बेचेंगे।
धाराओं में फर्क क्या
अब तक भूमि राजस्व अघिनियम 1956 की धारा 90-बी के तहत नगरीय क्षेत्र में किसी भी कृषि भूमि का भू रूपान्तरण हो सकता था। अब 90-ए में किए संशोधन के तहत मास्टरप्लान में किसी स्थान के लिए निर्घारित भू उपयोग के विपरीत कृषि भूमि का रूपान्तरण नहीं होगा। जानकारों के अनुसार भू रूपान्तरण की प्रकिया तय करने के लिए जारी नियमों में हर कार्य की समयावघि निर्घारित की जाएगी।
खातेदार ले सकेंगे जमीं
पहले ले आउट मंजूर नहीं होने के बाद भी रूपान्तरण को समर्पित भूमि खातेदारों को वापस नहीं मिलती थी। अब खातेदार कृषि भूमि वापस ले सकेगा। संशोधन के बाद सरकार 90-ए के आदेश बदल सकेगी और स्वप्ररेणा से किसी प्रकरण की पत्रावली मंगा संबंघित पक्षों को सुन आदेश दे सकेगी। पर मास्टर प्लान का उल्लंघन नहीं किया जा सकेगा।
ये निर्णय भी लिए मंत्रिमण्डल ने
मणिपाल एज्यूकेशन फाउण्डेशन को 59.32 एकड़ भूमि संस्थानिक आरक्षित दर से 40 प्रतिशत दर पर आवंटन। मणिपाल ग्रुप बेंगलूरू को 2008 में आवंटित हॉस्पिटल के लिए भूमि आवंटन की शर्ते यथावत रखते नियमन प्रस्ताव पर मोहर।
अनुसूचित जाति एवं जनजाति उप योजना तैयार करने और बजट में दर्शाई राशि का वास्तविक उपयोग सुनिश्चित करने के लिए व्यापक दिशा निर्देशों को मंजूरी।
राजस्थान स्वैच्छया ग्रामीण शिक्षा सेवा नियम 10 में संशोधन। इससे अनुदानित शिक्षण संस्थाओं के करीब 5500 कर्मियों को नई पेंशन योजना का लाभ मिलेगा।
नर्सिग स्कूलों का निरीक्षण अब सरकारी अघिकारी भी कर सकेंगे।
सत्र 27 या 28 से
विधानसभा का बजट सत्र 27 या 28 फरवरी से शुरू हो सकता है। मंत्रिमण्डल बैठक में इस पर चर्चा हुई। मंत्रिमण्डल पूर्व में ही सत्र की तारीख तय करने के लिए मुख्यमंत्री को अघिकृत कर चुका है। गहलोत राज्यपाल शिवराज पाटिल से बात करेंगे और राज्यपाल की सहूलियत के हिसाब से इनमें से कोई तारीख तय करेंगे।
होटलनुमा कन्वेंशन सेंटर के लिए निकाली गली
मंत्रिमण्डल ने होटल की शक्ल में बनने वाले कन्वेंशन सेंटर को आखिर गली निकालकर मंजूरी दे ही दी। मंत्रिमण्डल ने शर्तो में बदलाव कर एक समूह को जयपुर में रीको के सीतापुरा औद्योगिक क्षेत्र में 42 एकड़ जमीन देने के प्रस्ताव पर मोहर लगा दी। सरकार ने प्रस्ताव को मंजूरी देने के लिए इस तरह की गली निकाली है कि सरकारी कार्यक्रमों के लिए कन्वेंशन सेंटर को एक साल में 15 दिन के बजाय 30 दिन नि:शुल्क लिया जा सकेगा।
कागजों में यह भी जोड़ दिया कि इसके बाद भी सरकार को जरूरत पड़ेगी तो समूह को प्राथमिकता देनी होगी। अब कन्वेंशन सेंटर में दो सभागार बनेंगे और सीटों की क्षमता 500 से 1 हजार होगी। चार सितारा होटल का प्रावधान यथावत रख दिया गया है। बैठक के बाद उद्योग मंत्री राजेन्द्र पारीक ने दावा किया कि इस निर्णय में पूरी पारदर्शिता बरती गई है। यह भूमि पीपीपी प्रणाली में 7.80 करोड़ रूपए सालाना प्रीमियम के आधार पर 60 साल की लीज पर दी जाएगी और हर तीसरे साल इसमें 15 फीसदी का इजाफा होगा। 24 माह में 225 करोड़ के निवेश से वहां प्रदर्शनी स्थल एवं कन्वेंशन सेंटर तैयार होगा।
करौली में 15 हजार करोड़ का स्टील प्लांट
मंत्रिमण्डल ने करौली जिले में कल्याणी समूह को15 हजार करोड़ के निवेश से विशेष किस्म का स्टील संयंत्र लगाने के प्रस्ताव को बुधवार को मंजूरी दी। मौजूदा सरकार में राज्य में यह अब तक का सबसे बड़ा निवेश होगा। बैठक में कल्याणी माइनिंग वेंचर्स व नेचुरल रिर्सोसेज प्रा.लि. को खनिज लोह अयस्क के खनन पट्टे के आवंटन के लिए केन्द्र से सिफारिश करने का निर्णय भी हुआ। संयंत्र में करीब 3 हजार लोगों को नौकरी और हजारों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। कम्पनी तीन साल के भीतर निर्माण कार्य चालू करने को पाबंध किया गया है।
अन्यथा 10 करोड़ की उसकी अमानत राशि जब्त हो जाएगी। उद्योग मंत्री राजेन्द्र पारीक ने बताया कि खनिज पट्टों के आवंटन से निवेशक को कच्चा माल मिल सकेगा। इस संयंत्र से विशेष किस्म की स्टील सीआरजीओ का उत्पादन होगा, जो फिलहाल आयात ही होता है और इसका इस्तेमाल विमान, राकेट आदि में होता है।
पारीक ने बताया कि मंत्रिमंडल ने विश्वविख्यात कम्पनी मैसर्स सेंट गोबेन ग्लास इण्डिया लि. को विश्व स्तरीय ग्लास उत्पादन बनाने के लिये करौली जिले में खनिज सिलिका सैण्ड के खनन पट्टे के आवंटन को मंजूरी दे दी। कम्पनी द्वारा भिवाड़ी में अब तक 500 करोड़ का निवेश किया जा चुका है। सिलिका सैण्ड के खनन पट्टे आवंटन के निर्णय से निवेशक को कच्चा माल मिल सकेगा।

Thursday, August 19, 2010

भटकी हुई छात्र राजनीति

हमारे यहां छात्र राजनीति की दो धाराएं रही हैं। आजादी से पहले वाली और आजादी के बाद वाली। आजादी से पहले हमारे देश में छात्र राजनीति की महत्वपूर्ण शुरूआत होती है 1921 में, जब महात्मा गांधी ने छात्रों से कहा, 'स्कूल और कॉलेज का बहिष्कार करो।' उस समय असामान्य परिस्थिति थी और आजादी की लडाई चल रही थी। ज्यादातर लोगों ने गांधीजी के आह्वान को सही माना, लेकिन तब भी एनी बेसेंट ने इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि छात्रों को सक्रिय राजनीति में शामिल न करके हमें कोशिश करनी चाहिए कि वे राजनीति के बारे में रूचि रखें और अपनी जानकारी बढाएं।

आजादी की लडाई में यह बात मान ली गई कि अगर छात्र स्कूल-कॉलेज छोडकर जेल जाते हंै, तो यह उनका फर्ज है, लेकिन आजादी के बाद फिर सवाल उठा कि छात्रों की राजनीति में कितनी और किस हद तक भूमिका रहनी चाहिए। मान लीजिए, आजादी की लडाई को छात्र राजनीति का पहला अध्याय मानें, तो आज छात्र राजनीति चौथे अध्याय में है। पहला अध्याय 1947 तक और दूसरा अध्याय 1977 तक है। दूसरे अध्याय में आपातकाल लगा और यह असामान्य स्थिति थी, जिसमें फिर एक बार छात्रों ने बढ-चढकर हिस्सा लिया। तीसरा अध्याय शुरू होता है 1977 के बाद, जब देश में सामान्य परिस्थितियों की वापसी हुई, तब लोगों को फिर लगा कि छात्रों को पढाई-लिखाई में समय देना चाहिए। हालांकि इस बहस को ज्यादातर तो किताबी या बौद्धिक बहस ही कहा जाएगा।

वास्तव में जिन दलों का स्वार्थ संसदीय राजनीति में है, वे छात्रों को अपनी ओर खींचने के सारे प्रयास करते रहे हैं, छात्रों को संसाधन के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। इसमें कोई दल पीछे नहीं है और छात्र संघ की राजनीति इससे सौ फीसदी प्रभावित रहती है। छात्र संघों के चुनाव वही लडते हैं, जिनको राजनीति में अपना भविष्य दिखाई पडता है।

एक समय था, जब छात्र संघों के परोक्ष चुनाव होते थे। पहले काउंसलर चुने जाते थे और काउंसलर ही छात्र संघ के पदाघिकारियों का चुनाव करते थे। दिल्ली की बात करें, तो राजनीतिक पार्टियां यह कोशिश करती थीं कि ज्यादा से ज्यादा काउंसलर उनकी पार्टी के चुने जाएं। काउंसलर चुने गए छात्रों को शिमला या किसी अन्य पर्यटन स्थल पर भेज दिया जाता था और वे उसी दिन लाए जाते थे, जब उन्हें वोट डालना होता था। इस खेल में कांग्रेस बाजी मार ले जाती थी। बाद में सीधे चुनाव होने लगे। इसमें अखिल विद्यार्थी परिषद के विद्यार्थी लंबे समय तक जीतते रहे।

अब छात्र राजनीति अपने चौथे अध्याय में है। यह अध्याय भूमंडलीकरण के साथ शुरू हुआ है। हिन्दुस्तान की जितनी राष्ट्रीय पार्टियां हैं, उनमें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकती कि हम सत्ता में नहीं रहे, तो विपक्षी पार्टी होने का जो फायदा है, वह अब किसी को नहीं है। दूसरी बात, छात्रों व छात्र नेताओं ने जो उम्मीद लगा रखी थी कि हमारी पार्टी सत्ता में आएगी, तो हम ऎसा परिवर्तन करेंगे कि धरती पर स्वर्ग उतर आएगा। उनकी पार्टी सत्ता में आई, लेकिन धरती पर स्वर्ग नहीं आया, बल्कि नरक और फैल गया। इसका असर भी छात्र राजनीति पर पडा है और अच्छे-समझदार छात्र बहुत हद तक राजनीति से अलग हो चुके हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि छात्र राजनीति आम तौर पर सत्ता की राजनीति करने वालों या हुडदंगियों की शरणस्थली बन गई।

छात्र राजनीति को लेकर चिंता नई बात नहीं है। 1981 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक समिति बनाई थी। 1983 को अपनी सिफारिशों में समिति ने कहा था, 'हमने जो राजनीति परिसरों में देखी, वह राजनीति की अवधारणा पर धब्बा है। अघिकारियों को परेशान करने के लिए गुंडों को भाडे पर लाया जाता है। विरोघियों को पीटकर भगा दिया जाता है।'

उसके बाद 2005 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जे.एम. लिंगदोह के नेतृत्व में एक समिति बनी। समिति ने छात्र संघों के चुनाव में उम्मीदवारों की उम्र तय कर दी। इस सिफारिश के बाद दिल्ली विवि. में जो पहला चुनाव हुआ, उसमें ज्यादातर उम्मीदवारों के पर्चे खारिज हो गए। एक सिफारिश यह भी थी कि कक्षा में 75 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र ही चुनाव लड सकेगा। चुनावी खर्च अघिक से अघिक 5000 रूपए होगा। सिफारिशें बहुत अच्छी थीं, लेकिन कौन विश्वविद्यालय इन सिफारिशों को मान रहा है, इसकी निगरानी में किसी राजनीतिक पार्टी की रूचि नहीं है। लिंगदोह समिति की सिफारिशें मानी जाती हैं, तो विश्वविद्यालय के परिसरों से राजनीतिक दलों का बोरिया-बिस्तर बंध जाएगा।

आज सोचने की जरूरत है कि छात्र संघों की राजनीति को कैसे सुधारा जाए एक तो लिंगदोह की सिफारिशों की पालना जरूरी है। छात्र राजनीति कमजोर वर्ग के लिए होनी चाहिए। उस वर्ग के लिए होनी चाहिए, जिसे अवसर नहीं मिला है, जिसके पास इतना पैसा नहीं है कि वह पढाई कर सके। ऎसे लोगों के लिए अगर राजनीति होती है, तो वह सच्ची राजनीति होगी। जरूरी है कि छात्र नेता अच्छों को साथ रखें और अपना आचरण तय करें।

मुझे याद है, 1954-55 की बात है। हमारे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के पदाघिकारी नेहरूजी से मिलने गए थे। छात्र संघ के प्रधानमंत्री ने नेहरूजी से कहा था, 'आप जिस देश के प्रधानमंत्री हैं, वहां मात्र 27 फीसदी लोग साक्षर हैं, मैं जहां का प्रधानमंत्री हूं, वहां सौ फीसदी लोग शिक्षित हैं।' निस्संदेह, जहां छात्र संघों के पदाघिकारी चुने जाते हैं, वहां केवल शिक्षितों की जमात होती है और शिक्षित लोगों को अपना निर्णय बेहतर करना चाहिए, ताकि पूरा देश उनसे सीखे।

Saturday, July 31, 2010

ये भस्मासुर!

सुना है कि उम्र बढने के साथ-साथ व्यक्ति परिपक्व भी होता जाता है, जीवन की दिशा तय करने की क्षमता भी बढती जाती है। यह भी सुना है कि साठ के पार व्यक्ति सठिया जाता है। हमारे सांसद पिछले तीन दिन से संसद की कार्यवाही को ठप किए बैठे हैं। हमारा लोकतंत्र 64 वर्ष का हो गया। आप गौर करके देखें कि यह जनप्रतिनिधियों का सामान्य व्यवहार बन गया है। चाहे संसद हो, विधानसभा हो अथवा पार्षदों की सभा। पहले दिन से ही हंगामा। कार्यवाही की कोई चिन्ता ही नहीं। जनता के मुद्दों की कोई चर्चा ही नहीं। स्वार्थी इतने हो गए हैं कि आए दिन अपने वेतन-भत्ते बढाने की मांग करते रहते हैं। काम नहीं करने का वेतन! भले ही करों से होने वाली आय सरकारी खर्चो में कम पड जाए। भले ही विकास के लिए देश को कर्ज में डुबा दें। भले ही बडे कार्य बीओटी के जरिए अपने ही लोगों से करा लिए जाएं और इस मद का बजट ऊपर का ऊपर कहीं फिसल जाए। भले ही सरकार जनता की सम्पत्ति अपने लोगों को बेच दे। किसी को किसी की चिन्ता नहीं।

आज देश के सामने बडे-बडे मुद्दे हैं। एक भी मुद्दा चर्चा में नहीं आएगा। भाजपा सरकार में भी नहीं आया। न कश्मीर का, न समानता के कानून का, न बांग्लादेशियों का, न ही भ्रष्टाचार का अथवा नक्सलवाद का। केवल एक महंगाई के मुद्दे पर सारी कार्यवाही ठप है। अन्य मुद्दों की ओर तो मानो ध्यान ले जाना ही नहीं चाहते। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने 28 जुलाई को हर एक को बोलने का अवसर दिया, फिर 29 को सबको सुना, यहां तक कि विपक्षी दल की नेता सुषमा स्वराज को उनकी वरिष्ठता तथा अनुभवों की याद भी दिलाई। फिर वही ढाक के तीन पात। जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां भी विपक्ष का आचरण ऎसा ही है। इसका एक ही अर्थ है। पक्ष-विपक्ष दोनों ही भीतर से समझे हुए हैं। जो कुछ देश को टीवी पर दिखाई देता है, वह शुद्ध अभिनय कला है। शान्ति के दृश्य वैसे भी टीवी पर अर्थहीन दिखाई पडते हैं। अब तो महिलाओं के कपडे फाडने तक तो पहुंच गए हैं। गोलियां चलाना ही बाकी है। संसद के बजाए पोलिंग बूथ पर चला लेते हैं।

हमारे लोकतंत्र का आश्चर्यजनक पहलू यह है कि इसमें लोकतंत्र दिखाई ही नहीं पडता। जनता को यह भान ही नहीं होता कि उनके लिए उनके प्रतिनिधि कोई कार्य कर रहे हैं। काम कराओ तो उसके लिए अलग से उनको भी धन दो, जैसे अधिकारियों को देते हो। बडे से बडे अपराध में किसी को सजा होते भी नहीं देखा। न नेता को, न अफसरों को। वे ही बडे अपराधों के मूल में बने रहते हैं।

हमारे जनप्रतिनिधि अपने सामन्ती व्यवहार पर ही गर्व करते हैं। जनता से मिलकर रहने पर नहीं। उन्हीं के साथ धन बल, भुज बल और पुलिस भी चिपकी रहती है। क्या मजाल किसी सदन में जनहित के विषयों पर चर्चा हो सके, निर्णय हों और दिशा तय हो सके। जहां चीन-जापान-ब्रिटेन में आज भी प्रधानमंत्री जैसे पद से इस्तीफे देने तक की परम्परा है, सजा देने की संस्कृति है, वहीं हमारे देश में इनको पुरस्कृत किया जाता है। इनको भी मंत्रिमण्डल तक में स्थान दिया जाता है। और फिर हर कोई सामन्तवादी! ये ही लोग आए दिन अदालतों की अवमानना करते हैं। नोटिसों की, वारण्टों की तो इनको चिन्ता भी नहीं होती। इनके विरूद्ध तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी कोई सरकार लागू नहीं करा पाती। फिर क्या ये लोग दुर्योधन और कंस जैसा व्यवहार नहीं करतेक् जो इनको सम्मान से अपने सिर पर बिठाते हैं, उन्हीं का अपमान करने में गर्व महसूस करते हैं। क्या बीतती होगी इनके बच्चों पर। यही विरासत छोडकर जाते हैं। नीम के कीडे, क्या जानें शक्कर का स्वाद।

क्या इनको नहीं मालूम कि सदन की कार्यवाही चलाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है! क्या इनको नहीं मालूम कि एक दिन का सदन चलाने का खर्चा क्या आता है! क्या इनको नहीं मालूम कि कार्य स्थगन का प्रस्ताव सबको सुनने के बाद सदन के अध्यक्ष ने अस्वीकार कर दिया है! क्या विपक्ष सचमुच सरकार को कठघरे में खडा करना चाहता है। तब तो उसके पास दर्जनों मुद्दे हैं। क्यों महंगाई के नाम पर शेष मुद्दों को टालना चाहता है! अन्य मुद्दों पर तो सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों में विफल भी नजर आएगी। क्यों विपक्ष चुप है! क्यों सदन के नेता प्रधानमंत्री मौन हैं! क्यों बातचीत का मार्ग प्रशस्त नहीं करते। यही तो एक मात्र समाधान है।

इसके ठीक विपरीत अडियल रूख बनाए रखना, बयानबाजी का सिलसिला (मंत्रियों द्वारा) जारी रखना जनता का अपमान है। लोकतंत्र का अपमान है। जो कुछ कहना है, या तो प्रधानमंत्री कहें अथवा विपक्ष की नेता। कांग्रेस और भाजपा दोनों की आलाकमान भी मौन दिखाई देती हैं। सदन के नेता ही तो पार्टी के सर्वेसर्वा नहीं होते। आलाकमान तो पार्टी को समय पर सलाह भी नहीं देती, न ही कष्ट पडने पर किसी को बचाने का प्रयास करती दिखाई पडती है। न सदन की कार्यवाही के लिए ठोस निर्णय अपने प्रतिनिधि को देती है। लगता है, बस अपने तकदीर का खाती है। और इस खाने में कमी पड जाए तो अपनों को भी मारने से नहीं चूकती। ऎसे में यदि किसी के पास ही कुछ नहीं है, कहने और करने को, तब सभी को ही आदरपूर्वक अध्यक्ष की बात स्वीकार कर लेनी चाहिए।

Tuesday, July 20, 2010

पराश्रित

राज्यसभा की सीटों के लिए राजस्थान से दोनों प्रमुख पार्टियों (कांग्रेस एवं भाजपा) ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की सूची जारी कर दी। अब ये प्रत्याशी संसद में उच्च सदन में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करेंगे। बधाई, दोनों दलों को!
राज्य के मतदाता अथवा आम नागरिक से कोई इस घोषणा की प्रतिक्रिया तो पूछकर देखे! वह तो यही कहेगा कि राजस्थान उन अभागे प्रदेशों में से एक है जो आजादी के साठ सालों में ऎसे प्रतिनिधि भी तैयार नहीं कर सका, जो राज्य का गौरव संसद में बढ़ा सकते। इन नामों को हम दशाब्दियों से देख रहे हैं और भोग रहे हैं। किस प्रकार बाहरी प्रत्याशी अथवा धनबल वाला व्यक्ति राज्य का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में करता है। फिर आईपीएल के खिलाडियों में और इन प्रत्याशियों में क्या अन्तर रह गया? आलाकमान की मर्जी ही से तो सारे निर्णय हुए हैं। हालात से किसका मन व्यथित नहीं होगा। पिछला दस-बीस-तीस साल का इतिहास उठाकर देखा जाए, तो तस्वीर का एक और पहलू नजर आएगा। स्व. भैरोंसिंह शेखावत ने अस्सी के दशक के शुरू में कहा था कि राजस्थान को बाहरी लोगों की चरागाह नहीं बनने दूंगा। इस बार भी राज्य के सभी वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने सर्वसम्मति से कहा था कि हमें बाहर का प्रत्याशी नहीं चाहिए। लेकिन दोनों ही पार्टियों का आलाकमान इस प्रस्ताव को स्वीकारने की स्थिति में नहीं रहा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि राज्यसभा के नामांकन के पीछे मूल अवधारणा यह थी कि प्रबुद्ध, विषय विशेषज्ञों को, जो कि चुनाव नहीं लड़ सकते या राजनीति से नहीं जुड़ सकते, इस सदन में लाने का प्रयास किया जाएगा। आज लगभग सब कुछ उलट गया है। पार्टियां अपने बूढ़े घोड़ों को, जो चुनाव नहीं जीत सकते, अथवा अर्थ के आधार पर प्रत्याशी बनाने लग गईं। किसी भी व्यक्ति के पिछले सालों के कार्यकाल का विधिवत आकलन नहीं किया जाता। जो कुछ नहीं कर पाते, वे भी नए सिरे से राज्यसभा में पहुंच जाते हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि किसी भी पार्टी के पास देश को देने के लिए सक्षम उम्मीदवार नहीं हैं। दूसरा पहलू है कि आलाकमान स्वयं इतना कमजोर है कि अपने पुराने नामों को आसानी से काट नहीं पाता। चाहे इनकी वजह से पार्टी की नाक कट जाए।
राजस्थान में बाहरी उम्मीदवारों को लाने का सिलसिला सन् 1980 में कांग्रेस ने राजेश पायलेट के साथ शुरू किया। आगे बलराम जाखड़, बूटा सिंह जैसे नाम जुड़ते गए। इसी प्रकार भाजपा की ओर से भी बंगारू लक्ष्मण और उनकी पत्नी सुशीला लक्ष्मण तथा धर्मेन्द्र को उम्मीदवार बनाया। नजमा हेपतुल्ला का नाम तो इस बार भी उठा। अब तो विधानसभा तक में भी उम्मीदवारों को बाहर से आमंत्रित किया जाना नया नहीं लगता। क्या लोकतंत्र में विकास का इतिहास यहीं आकर ठहर जाएगा। मेरे प्रदेश के लोग आजाद होकर भी मूकदर्शक बने रहेंगे?
यह केवल राजस्थान का ही परिदृश्य नहीं है। सभी प्रदेशों एवं केन्द्र शासित राज्यों की यही कहानी है। कांग्रेस ने उ.प्र. की मोहसिना किदवई को छत्तीसगढ़ से और तमिलनाडु के जयराम रमेश को आंध्र प्रदेश से टिकट दिया है। इसी प्रकार भाजपा ने आंध्र प्रदेश के वेंकैया नायडू को कर्नाटक से और प.बंगाल के चन्दन मित्रा को मध्य प्रदेश से टिकट दिया है। इनको क्यों अपने-अपने प्रदेशों में हार का सामना नहीं करने दिया जाता। आईने में ये अपनी सूरत देख लें। हारते हैं तो घर बैठें। हारने वाले को जीता घोषित करके हम उसके अहंकार को ही पोषित करते हैं। समय के साथ ऎसे ही लोग पार्टी के लिए घातक सिद्ध होते हैं। मन में जनता की नकार की ग्लानि भी काटती रहती है। आज इसी एक कारण से दोनों ही प्रमुख दलों में नेतृत्व का विकास नहीं हुआ। हारे हुए लोग ही ऊपर बैठकर नीतियां बनाते हैं। परोक्ष रू प में तो यह लोकतंत्र का अपराधीकरण ही हो रहा है। अपने प्रदेश के मतदाता द्वारा नकारे गए लोग अन्य प्रदेशों पर थोपे जाना भी तो अपराधीकरण है। ऎसे लोग संविधान का कितना सम्मान कर पाए हैं, देश के सामने है।

Delhi Ki "Barsat"

दिल्ली और मुंबई की बारिश का राष्ट्रीय चरित्र हो गया है। चार बूंदें गिरती हैं और चालीस खबरें बनती हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने अब तय कर लिया है, जो इन दो महानगरों में रहता है, वही राष्ट्रीय है। मुझे अच्छी तरह याद है, बिहार की कोसी नदी में बाढ आई। राष्ट्रीय मीडिया ने संज्ञान लेने में दस दिन लगा दिए, तब तक लाखों लोग बेघर हो चुके थे। सैकडों लोग मारे जा चुके थे। राहत का काम तक शुरू नहीं हुआ था। वो दिन गए कि मल्हार और कजरी यूपी के बागों में रची और सुनी जाती थी। अब तो कजरी और मल्हार को भी झूमने के लिए दिल्ली आना होगा। वर्ना कोई उसे कवर भी नहीं करेगा। 12 जुलाई को जब दिल्ली में बारिश आई, तो लोग घंटों जाम में फंसे रहे। पांच-पांच घंटे तक लोग सडकों पर अटके रहे। वैसे आम दिनों में दिल्ली में कई जगहों पर दो से ढाई घंटे का जाम होता ही है। लेकिन यह जब दोगुना हुआ, तो धीरज जवाब दे गया। जरूरी भी था कि इस दैनिक त्रासदी को कवर किया जाए, लेकिन जब यही बारिश जयपुर में आती, भोपाल में आती तो क्या उसे कवर किया जाताक् क्या जयपुर, भोपाल, इंदौर की बारिश के लिए कोई न्यूज चैनल अपना तय कार्यक्रम गिराताक् मुझे नहीं लगता है।
उसी तरह दिल्ली की गर्मी और मुंबई की उमस एक महत्वपूर्ण खबर है। मुंबई की लोकल में जरा-सा लोचा आ जाए, न्यूज चैनलों की सांसें रूक जाती हैं। पटना में कोई मालगाडी पलट जाए और घंटों जाम लग जाए, तो कोई अपनी ओबी वैन नहीं भेजेगा। दिल्ली में डीटीसी बस का किराया एक रूपया बढ जाए, तो न्यूज चैनल बावले हो जाते हैं। किसी को पता नहीं है कि जयपुर में किस तरह की आधुनिक बसें चलने लगी हैं, भोपाल या इंदौर में क्या सुविधाएं हैंक् अहमदाबाद में बीआरटीएस कॉरिडोर ने किस तरह दिल्ली की तुलना में कामयाबी पाई। जरूरी है कि पाठक और दर्शक को उनके अधिकार के बारे में बताया जाए।
राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र न बन पा रहा है, न बदल पा रहा है। सारे अंग्रेजी चैनलों ने बारिश की त्रासदी को सीमित मात्रा में दिखाया। हिन्दी चैनलों ने जितनी देर जाम, उतनी देर खबर के पैटर्न का अनुकरण किया। दिल्ली के लोगों की जरूरतों को भी अनदेखा नहीं कर सकते। लेकिन हर बार हंगामा दिल्ली को लेकर ही क्योंक् दिल्ली में स्थानीय न्यूज चैनल तो हैं ही। फिर भोपाल और जयपुर के लोग किसी राष्ट्रीय चैनल को देखने में अपना वक्त क्यों बर्बाद करेंक् वैसे भी कौन-सी राष्ट्रीय खबरें होती हैंक्
एक नुकसान और हुआ है। महानगरों में बारिश एक समस्या का रूपक बन गई है, जिसके आने से जाम लगता है। सडकें टूट जाती हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को राउंड पर निकलना पडता है। इसी बारिश में दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के जवान भीगते हुए रास्ते साफ कर रहे थे। कई जगहों पर सरकारी कर्मचारी काफी कोशिश कर रहे थे, लेकिन मीडिया ने इस प्रयास को दिखाया तक नहीं। किसी ने नहीं पूछा कि और कितनी लाख कारें सडकों पर उतरेंगीक् सिर्फ एकांगी तस्वीर पेश की कि ये जो बारिश आई है, वो तबाही है तबाही।
देश के जिलों में जाइए, बारिश होते ही लोगों के चेहरे पर चमक आ जाती है। अब तो बारिश में झूमते किसानों की भी तस्वीर नहीं छपती। धान की रोपनी करने वाली महिलाओं की तस्वीरें गायब हो गई हैं। सडकों पर पानी भरने के बाद उसमें नहाते बच्चों की तस्वीरें भी भूले-भटके छपती हैं। अब तो टीवी चैनलों ने बारिश को आतंककारी बना दिया। धडाम से ब्रेकिंग न्यूज का फ्लैश आता है- दिल्ली में भयंकर आंधी, मुंबई में पांच घंटे से लगातार बारिश। लोकल ट्रेन ठप। दहशत होने लगती है कि हाय रब्बा जाने कौन-सी आफत आने वाली है। यही हाल रहा, तो कुछ दिनों के बाद दिल्ली और मुंबई की नई पीढियां यकीन ही नहीं कर पाएंगी कि बारिश के मौसम में हम कजरी भी गाते थे। सावन में झूला भी झूलते थे।
बारिश का मतलब अब शहरी परेशानी बन कर रह गया है। नगर निगमों की नाकामी और घूसखोर इंजीनियरों की पोल खोलने का एक प्रत्यक्ष आयोजन! लेकिन क्या मीडिया उन इंजीनियरों का पीछा करता हैक् बताता है कि फलां सडक का ठेकेदार कौन था, इंजीनियर कौन थाक् वो बस शोर करता है। बारिश आई और तबाही आई। सडकों पर गड्ढों के लिए क्या बारिश ही जिम्मेदार हैक् एक इंजीनियर ने कहा कि बारिश से हम द:ुखी नहीं होते। रिपेयरिंग का नया बजट मिल जाता है कमीशन खाने के लिए। इस देश की नगर निकायों को कोई सुधार नहीं सकता। जब भी आप बारिश की खबर देखें, टीवी बंद कीजिए और छत पर जाइए। ये मार्केटिंग का दौर है। बारिश एक भयंकर 'इमेज' संकट से गुजर रही है। करतूत घूसखोरों की और बदनाम बारिश हो रही है। प्लीज, बारिश की मासूम फुहारों को बचाइए।