Tuesday, July 20, 2010

पराश्रित

राज्यसभा की सीटों के लिए राजस्थान से दोनों प्रमुख पार्टियों (कांग्रेस एवं भाजपा) ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की सूची जारी कर दी। अब ये प्रत्याशी संसद में उच्च सदन में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करेंगे। बधाई, दोनों दलों को!
राज्य के मतदाता अथवा आम नागरिक से कोई इस घोषणा की प्रतिक्रिया तो पूछकर देखे! वह तो यही कहेगा कि राजस्थान उन अभागे प्रदेशों में से एक है जो आजादी के साठ सालों में ऎसे प्रतिनिधि भी तैयार नहीं कर सका, जो राज्य का गौरव संसद में बढ़ा सकते। इन नामों को हम दशाब्दियों से देख रहे हैं और भोग रहे हैं। किस प्रकार बाहरी प्रत्याशी अथवा धनबल वाला व्यक्ति राज्य का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में करता है। फिर आईपीएल के खिलाडियों में और इन प्रत्याशियों में क्या अन्तर रह गया? आलाकमान की मर्जी ही से तो सारे निर्णय हुए हैं। हालात से किसका मन व्यथित नहीं होगा। पिछला दस-बीस-तीस साल का इतिहास उठाकर देखा जाए, तो तस्वीर का एक और पहलू नजर आएगा। स्व. भैरोंसिंह शेखावत ने अस्सी के दशक के शुरू में कहा था कि राजस्थान को बाहरी लोगों की चरागाह नहीं बनने दूंगा। इस बार भी राज्य के सभी वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने सर्वसम्मति से कहा था कि हमें बाहर का प्रत्याशी नहीं चाहिए। लेकिन दोनों ही पार्टियों का आलाकमान इस प्रस्ताव को स्वीकारने की स्थिति में नहीं रहा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि राज्यसभा के नामांकन के पीछे मूल अवधारणा यह थी कि प्रबुद्ध, विषय विशेषज्ञों को, जो कि चुनाव नहीं लड़ सकते या राजनीति से नहीं जुड़ सकते, इस सदन में लाने का प्रयास किया जाएगा। आज लगभग सब कुछ उलट गया है। पार्टियां अपने बूढ़े घोड़ों को, जो चुनाव नहीं जीत सकते, अथवा अर्थ के आधार पर प्रत्याशी बनाने लग गईं। किसी भी व्यक्ति के पिछले सालों के कार्यकाल का विधिवत आकलन नहीं किया जाता। जो कुछ नहीं कर पाते, वे भी नए सिरे से राज्यसभा में पहुंच जाते हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि किसी भी पार्टी के पास देश को देने के लिए सक्षम उम्मीदवार नहीं हैं। दूसरा पहलू है कि आलाकमान स्वयं इतना कमजोर है कि अपने पुराने नामों को आसानी से काट नहीं पाता। चाहे इनकी वजह से पार्टी की नाक कट जाए।
राजस्थान में बाहरी उम्मीदवारों को लाने का सिलसिला सन् 1980 में कांग्रेस ने राजेश पायलेट के साथ शुरू किया। आगे बलराम जाखड़, बूटा सिंह जैसे नाम जुड़ते गए। इसी प्रकार भाजपा की ओर से भी बंगारू लक्ष्मण और उनकी पत्नी सुशीला लक्ष्मण तथा धर्मेन्द्र को उम्मीदवार बनाया। नजमा हेपतुल्ला का नाम तो इस बार भी उठा। अब तो विधानसभा तक में भी उम्मीदवारों को बाहर से आमंत्रित किया जाना नया नहीं लगता। क्या लोकतंत्र में विकास का इतिहास यहीं आकर ठहर जाएगा। मेरे प्रदेश के लोग आजाद होकर भी मूकदर्शक बने रहेंगे?
यह केवल राजस्थान का ही परिदृश्य नहीं है। सभी प्रदेशों एवं केन्द्र शासित राज्यों की यही कहानी है। कांग्रेस ने उ.प्र. की मोहसिना किदवई को छत्तीसगढ़ से और तमिलनाडु के जयराम रमेश को आंध्र प्रदेश से टिकट दिया है। इसी प्रकार भाजपा ने आंध्र प्रदेश के वेंकैया नायडू को कर्नाटक से और प.बंगाल के चन्दन मित्रा को मध्य प्रदेश से टिकट दिया है। इनको क्यों अपने-अपने प्रदेशों में हार का सामना नहीं करने दिया जाता। आईने में ये अपनी सूरत देख लें। हारते हैं तो घर बैठें। हारने वाले को जीता घोषित करके हम उसके अहंकार को ही पोषित करते हैं। समय के साथ ऎसे ही लोग पार्टी के लिए घातक सिद्ध होते हैं। मन में जनता की नकार की ग्लानि भी काटती रहती है। आज इसी एक कारण से दोनों ही प्रमुख दलों में नेतृत्व का विकास नहीं हुआ। हारे हुए लोग ही ऊपर बैठकर नीतियां बनाते हैं। परोक्ष रू प में तो यह लोकतंत्र का अपराधीकरण ही हो रहा है। अपने प्रदेश के मतदाता द्वारा नकारे गए लोग अन्य प्रदेशों पर थोपे जाना भी तो अपराधीकरण है। ऎसे लोग संविधान का कितना सम्मान कर पाए हैं, देश के सामने है।

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