Thursday, August 19, 2010

भटकी हुई छात्र राजनीति

हमारे यहां छात्र राजनीति की दो धाराएं रही हैं। आजादी से पहले वाली और आजादी के बाद वाली। आजादी से पहले हमारे देश में छात्र राजनीति की महत्वपूर्ण शुरूआत होती है 1921 में, जब महात्मा गांधी ने छात्रों से कहा, 'स्कूल और कॉलेज का बहिष्कार करो।' उस समय असामान्य परिस्थिति थी और आजादी की लडाई चल रही थी। ज्यादातर लोगों ने गांधीजी के आह्वान को सही माना, लेकिन तब भी एनी बेसेंट ने इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि छात्रों को सक्रिय राजनीति में शामिल न करके हमें कोशिश करनी चाहिए कि वे राजनीति के बारे में रूचि रखें और अपनी जानकारी बढाएं।

आजादी की लडाई में यह बात मान ली गई कि अगर छात्र स्कूल-कॉलेज छोडकर जेल जाते हंै, तो यह उनका फर्ज है, लेकिन आजादी के बाद फिर सवाल उठा कि छात्रों की राजनीति में कितनी और किस हद तक भूमिका रहनी चाहिए। मान लीजिए, आजादी की लडाई को छात्र राजनीति का पहला अध्याय मानें, तो आज छात्र राजनीति चौथे अध्याय में है। पहला अध्याय 1947 तक और दूसरा अध्याय 1977 तक है। दूसरे अध्याय में आपातकाल लगा और यह असामान्य स्थिति थी, जिसमें फिर एक बार छात्रों ने बढ-चढकर हिस्सा लिया। तीसरा अध्याय शुरू होता है 1977 के बाद, जब देश में सामान्य परिस्थितियों की वापसी हुई, तब लोगों को फिर लगा कि छात्रों को पढाई-लिखाई में समय देना चाहिए। हालांकि इस बहस को ज्यादातर तो किताबी या बौद्धिक बहस ही कहा जाएगा।

वास्तव में जिन दलों का स्वार्थ संसदीय राजनीति में है, वे छात्रों को अपनी ओर खींचने के सारे प्रयास करते रहे हैं, छात्रों को संसाधन के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। इसमें कोई दल पीछे नहीं है और छात्र संघ की राजनीति इससे सौ फीसदी प्रभावित रहती है। छात्र संघों के चुनाव वही लडते हैं, जिनको राजनीति में अपना भविष्य दिखाई पडता है।

एक समय था, जब छात्र संघों के परोक्ष चुनाव होते थे। पहले काउंसलर चुने जाते थे और काउंसलर ही छात्र संघ के पदाघिकारियों का चुनाव करते थे। दिल्ली की बात करें, तो राजनीतिक पार्टियां यह कोशिश करती थीं कि ज्यादा से ज्यादा काउंसलर उनकी पार्टी के चुने जाएं। काउंसलर चुने गए छात्रों को शिमला या किसी अन्य पर्यटन स्थल पर भेज दिया जाता था और वे उसी दिन लाए जाते थे, जब उन्हें वोट डालना होता था। इस खेल में कांग्रेस बाजी मार ले जाती थी। बाद में सीधे चुनाव होने लगे। इसमें अखिल विद्यार्थी परिषद के विद्यार्थी लंबे समय तक जीतते रहे।

अब छात्र राजनीति अपने चौथे अध्याय में है। यह अध्याय भूमंडलीकरण के साथ शुरू हुआ है। हिन्दुस्तान की जितनी राष्ट्रीय पार्टियां हैं, उनमें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकती कि हम सत्ता में नहीं रहे, तो विपक्षी पार्टी होने का जो फायदा है, वह अब किसी को नहीं है। दूसरी बात, छात्रों व छात्र नेताओं ने जो उम्मीद लगा रखी थी कि हमारी पार्टी सत्ता में आएगी, तो हम ऎसा परिवर्तन करेंगे कि धरती पर स्वर्ग उतर आएगा। उनकी पार्टी सत्ता में आई, लेकिन धरती पर स्वर्ग नहीं आया, बल्कि नरक और फैल गया। इसका असर भी छात्र राजनीति पर पडा है और अच्छे-समझदार छात्र बहुत हद तक राजनीति से अलग हो चुके हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि छात्र राजनीति आम तौर पर सत्ता की राजनीति करने वालों या हुडदंगियों की शरणस्थली बन गई।

छात्र राजनीति को लेकर चिंता नई बात नहीं है। 1981 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक समिति बनाई थी। 1983 को अपनी सिफारिशों में समिति ने कहा था, 'हमने जो राजनीति परिसरों में देखी, वह राजनीति की अवधारणा पर धब्बा है। अघिकारियों को परेशान करने के लिए गुंडों को भाडे पर लाया जाता है। विरोघियों को पीटकर भगा दिया जाता है।'

उसके बाद 2005 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जे.एम. लिंगदोह के नेतृत्व में एक समिति बनी। समिति ने छात्र संघों के चुनाव में उम्मीदवारों की उम्र तय कर दी। इस सिफारिश के बाद दिल्ली विवि. में जो पहला चुनाव हुआ, उसमें ज्यादातर उम्मीदवारों के पर्चे खारिज हो गए। एक सिफारिश यह भी थी कि कक्षा में 75 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र ही चुनाव लड सकेगा। चुनावी खर्च अघिक से अघिक 5000 रूपए होगा। सिफारिशें बहुत अच्छी थीं, लेकिन कौन विश्वविद्यालय इन सिफारिशों को मान रहा है, इसकी निगरानी में किसी राजनीतिक पार्टी की रूचि नहीं है। लिंगदोह समिति की सिफारिशें मानी जाती हैं, तो विश्वविद्यालय के परिसरों से राजनीतिक दलों का बोरिया-बिस्तर बंध जाएगा।

आज सोचने की जरूरत है कि छात्र संघों की राजनीति को कैसे सुधारा जाए एक तो लिंगदोह की सिफारिशों की पालना जरूरी है। छात्र राजनीति कमजोर वर्ग के लिए होनी चाहिए। उस वर्ग के लिए होनी चाहिए, जिसे अवसर नहीं मिला है, जिसके पास इतना पैसा नहीं है कि वह पढाई कर सके। ऎसे लोगों के लिए अगर राजनीति होती है, तो वह सच्ची राजनीति होगी। जरूरी है कि छात्र नेता अच्छों को साथ रखें और अपना आचरण तय करें।

मुझे याद है, 1954-55 की बात है। हमारे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के पदाघिकारी नेहरूजी से मिलने गए थे। छात्र संघ के प्रधानमंत्री ने नेहरूजी से कहा था, 'आप जिस देश के प्रधानमंत्री हैं, वहां मात्र 27 फीसदी लोग साक्षर हैं, मैं जहां का प्रधानमंत्री हूं, वहां सौ फीसदी लोग शिक्षित हैं।' निस्संदेह, जहां छात्र संघों के पदाघिकारी चुने जाते हैं, वहां केवल शिक्षितों की जमात होती है और शिक्षित लोगों को अपना निर्णय बेहतर करना चाहिए, ताकि पूरा देश उनसे सीखे।

6 comments:

  1. yours blog is very good...
    keep it up

    come to my blog
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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  3. क्या बात लिखी है .....!!!
    छात्र संघ की राजनीति का अच्छा विश्लेषण किया आपने
    यही बात सही है कि लिंगदोह की सिफारिशें लागू होनी चाहिए

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  4. ब्लाग जगत में आपका स्वागत है।
    आशा है कि आप अपने लेखन से ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।



    आपके ब्लाग की स्वागत चर्चा पर जाने के लिए यहां क्लिक करें।

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  5. आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा. हिंदी लेखन को बढ़ावा देने के लिए आपका आभार. आपका ब्लॉग दिनोदिन उन्नति की ओर अग्रसर हो, आपकी लेखन विधा प्रशंसनीय है. आप हमारे ब्लॉग पर भी अवश्य पधारें, यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो "अनुसरण कर्ता" बनकर हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें. साथ ही अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ, ताकि इस मंच को हम नयी दिशा दे सकें. धन्यवाद . आपकी प्रतीक्षा में ....
    भारतीय ब्लॉग लेखक मंच
    माफियाओं के चंगुल में ब्लागिंग

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