Saturday, July 31, 2010

ये भस्मासुर!

सुना है कि उम्र बढने के साथ-साथ व्यक्ति परिपक्व भी होता जाता है, जीवन की दिशा तय करने की क्षमता भी बढती जाती है। यह भी सुना है कि साठ के पार व्यक्ति सठिया जाता है। हमारे सांसद पिछले तीन दिन से संसद की कार्यवाही को ठप किए बैठे हैं। हमारा लोकतंत्र 64 वर्ष का हो गया। आप गौर करके देखें कि यह जनप्रतिनिधियों का सामान्य व्यवहार बन गया है। चाहे संसद हो, विधानसभा हो अथवा पार्षदों की सभा। पहले दिन से ही हंगामा। कार्यवाही की कोई चिन्ता ही नहीं। जनता के मुद्दों की कोई चर्चा ही नहीं। स्वार्थी इतने हो गए हैं कि आए दिन अपने वेतन-भत्ते बढाने की मांग करते रहते हैं। काम नहीं करने का वेतन! भले ही करों से होने वाली आय सरकारी खर्चो में कम पड जाए। भले ही विकास के लिए देश को कर्ज में डुबा दें। भले ही बडे कार्य बीओटी के जरिए अपने ही लोगों से करा लिए जाएं और इस मद का बजट ऊपर का ऊपर कहीं फिसल जाए। भले ही सरकार जनता की सम्पत्ति अपने लोगों को बेच दे। किसी को किसी की चिन्ता नहीं।

आज देश के सामने बडे-बडे मुद्दे हैं। एक भी मुद्दा चर्चा में नहीं आएगा। भाजपा सरकार में भी नहीं आया। न कश्मीर का, न समानता के कानून का, न बांग्लादेशियों का, न ही भ्रष्टाचार का अथवा नक्सलवाद का। केवल एक महंगाई के मुद्दे पर सारी कार्यवाही ठप है। अन्य मुद्दों की ओर तो मानो ध्यान ले जाना ही नहीं चाहते। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने 28 जुलाई को हर एक को बोलने का अवसर दिया, फिर 29 को सबको सुना, यहां तक कि विपक्षी दल की नेता सुषमा स्वराज को उनकी वरिष्ठता तथा अनुभवों की याद भी दिलाई। फिर वही ढाक के तीन पात। जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां भी विपक्ष का आचरण ऎसा ही है। इसका एक ही अर्थ है। पक्ष-विपक्ष दोनों ही भीतर से समझे हुए हैं। जो कुछ देश को टीवी पर दिखाई देता है, वह शुद्ध अभिनय कला है। शान्ति के दृश्य वैसे भी टीवी पर अर्थहीन दिखाई पडते हैं। अब तो महिलाओं के कपडे फाडने तक तो पहुंच गए हैं। गोलियां चलाना ही बाकी है। संसद के बजाए पोलिंग बूथ पर चला लेते हैं।

हमारे लोकतंत्र का आश्चर्यजनक पहलू यह है कि इसमें लोकतंत्र दिखाई ही नहीं पडता। जनता को यह भान ही नहीं होता कि उनके लिए उनके प्रतिनिधि कोई कार्य कर रहे हैं। काम कराओ तो उसके लिए अलग से उनको भी धन दो, जैसे अधिकारियों को देते हो। बडे से बडे अपराध में किसी को सजा होते भी नहीं देखा। न नेता को, न अफसरों को। वे ही बडे अपराधों के मूल में बने रहते हैं।

हमारे जनप्रतिनिधि अपने सामन्ती व्यवहार पर ही गर्व करते हैं। जनता से मिलकर रहने पर नहीं। उन्हीं के साथ धन बल, भुज बल और पुलिस भी चिपकी रहती है। क्या मजाल किसी सदन में जनहित के विषयों पर चर्चा हो सके, निर्णय हों और दिशा तय हो सके। जहां चीन-जापान-ब्रिटेन में आज भी प्रधानमंत्री जैसे पद से इस्तीफे देने तक की परम्परा है, सजा देने की संस्कृति है, वहीं हमारे देश में इनको पुरस्कृत किया जाता है। इनको भी मंत्रिमण्डल तक में स्थान दिया जाता है। और फिर हर कोई सामन्तवादी! ये ही लोग आए दिन अदालतों की अवमानना करते हैं। नोटिसों की, वारण्टों की तो इनको चिन्ता भी नहीं होती। इनके विरूद्ध तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी कोई सरकार लागू नहीं करा पाती। फिर क्या ये लोग दुर्योधन और कंस जैसा व्यवहार नहीं करतेक् जो इनको सम्मान से अपने सिर पर बिठाते हैं, उन्हीं का अपमान करने में गर्व महसूस करते हैं। क्या बीतती होगी इनके बच्चों पर। यही विरासत छोडकर जाते हैं। नीम के कीडे, क्या जानें शक्कर का स्वाद।

क्या इनको नहीं मालूम कि सदन की कार्यवाही चलाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है! क्या इनको नहीं मालूम कि एक दिन का सदन चलाने का खर्चा क्या आता है! क्या इनको नहीं मालूम कि कार्य स्थगन का प्रस्ताव सबको सुनने के बाद सदन के अध्यक्ष ने अस्वीकार कर दिया है! क्या विपक्ष सचमुच सरकार को कठघरे में खडा करना चाहता है। तब तो उसके पास दर्जनों मुद्दे हैं। क्यों महंगाई के नाम पर शेष मुद्दों को टालना चाहता है! अन्य मुद्दों पर तो सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों में विफल भी नजर आएगी। क्यों विपक्ष चुप है! क्यों सदन के नेता प्रधानमंत्री मौन हैं! क्यों बातचीत का मार्ग प्रशस्त नहीं करते। यही तो एक मात्र समाधान है।

इसके ठीक विपरीत अडियल रूख बनाए रखना, बयानबाजी का सिलसिला (मंत्रियों द्वारा) जारी रखना जनता का अपमान है। लोकतंत्र का अपमान है। जो कुछ कहना है, या तो प्रधानमंत्री कहें अथवा विपक्ष की नेता। कांग्रेस और भाजपा दोनों की आलाकमान भी मौन दिखाई देती हैं। सदन के नेता ही तो पार्टी के सर्वेसर्वा नहीं होते। आलाकमान तो पार्टी को समय पर सलाह भी नहीं देती, न ही कष्ट पडने पर किसी को बचाने का प्रयास करती दिखाई पडती है। न सदन की कार्यवाही के लिए ठोस निर्णय अपने प्रतिनिधि को देती है। लगता है, बस अपने तकदीर का खाती है। और इस खाने में कमी पड जाए तो अपनों को भी मारने से नहीं चूकती। ऎसे में यदि किसी के पास ही कुछ नहीं है, कहने और करने को, तब सभी को ही आदरपूर्वक अध्यक्ष की बात स्वीकार कर लेनी चाहिए।

Tuesday, July 20, 2010

पराश्रित

राज्यसभा की सीटों के लिए राजस्थान से दोनों प्रमुख पार्टियों (कांग्रेस एवं भाजपा) ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की सूची जारी कर दी। अब ये प्रत्याशी संसद में उच्च सदन में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करेंगे। बधाई, दोनों दलों को!
राज्य के मतदाता अथवा आम नागरिक से कोई इस घोषणा की प्रतिक्रिया तो पूछकर देखे! वह तो यही कहेगा कि राजस्थान उन अभागे प्रदेशों में से एक है जो आजादी के साठ सालों में ऎसे प्रतिनिधि भी तैयार नहीं कर सका, जो राज्य का गौरव संसद में बढ़ा सकते। इन नामों को हम दशाब्दियों से देख रहे हैं और भोग रहे हैं। किस प्रकार बाहरी प्रत्याशी अथवा धनबल वाला व्यक्ति राज्य का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में करता है। फिर आईपीएल के खिलाडियों में और इन प्रत्याशियों में क्या अन्तर रह गया? आलाकमान की मर्जी ही से तो सारे निर्णय हुए हैं। हालात से किसका मन व्यथित नहीं होगा। पिछला दस-बीस-तीस साल का इतिहास उठाकर देखा जाए, तो तस्वीर का एक और पहलू नजर आएगा। स्व. भैरोंसिंह शेखावत ने अस्सी के दशक के शुरू में कहा था कि राजस्थान को बाहरी लोगों की चरागाह नहीं बनने दूंगा। इस बार भी राज्य के सभी वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने सर्वसम्मति से कहा था कि हमें बाहर का प्रत्याशी नहीं चाहिए। लेकिन दोनों ही पार्टियों का आलाकमान इस प्रस्ताव को स्वीकारने की स्थिति में नहीं रहा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि राज्यसभा के नामांकन के पीछे मूल अवधारणा यह थी कि प्रबुद्ध, विषय विशेषज्ञों को, जो कि चुनाव नहीं लड़ सकते या राजनीति से नहीं जुड़ सकते, इस सदन में लाने का प्रयास किया जाएगा। आज लगभग सब कुछ उलट गया है। पार्टियां अपने बूढ़े घोड़ों को, जो चुनाव नहीं जीत सकते, अथवा अर्थ के आधार पर प्रत्याशी बनाने लग गईं। किसी भी व्यक्ति के पिछले सालों के कार्यकाल का विधिवत आकलन नहीं किया जाता। जो कुछ नहीं कर पाते, वे भी नए सिरे से राज्यसभा में पहुंच जाते हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि किसी भी पार्टी के पास देश को देने के लिए सक्षम उम्मीदवार नहीं हैं। दूसरा पहलू है कि आलाकमान स्वयं इतना कमजोर है कि अपने पुराने नामों को आसानी से काट नहीं पाता। चाहे इनकी वजह से पार्टी की नाक कट जाए।
राजस्थान में बाहरी उम्मीदवारों को लाने का सिलसिला सन् 1980 में कांग्रेस ने राजेश पायलेट के साथ शुरू किया। आगे बलराम जाखड़, बूटा सिंह जैसे नाम जुड़ते गए। इसी प्रकार भाजपा की ओर से भी बंगारू लक्ष्मण और उनकी पत्नी सुशीला लक्ष्मण तथा धर्मेन्द्र को उम्मीदवार बनाया। नजमा हेपतुल्ला का नाम तो इस बार भी उठा। अब तो विधानसभा तक में भी उम्मीदवारों को बाहर से आमंत्रित किया जाना नया नहीं लगता। क्या लोकतंत्र में विकास का इतिहास यहीं आकर ठहर जाएगा। मेरे प्रदेश के लोग आजाद होकर भी मूकदर्शक बने रहेंगे?
यह केवल राजस्थान का ही परिदृश्य नहीं है। सभी प्रदेशों एवं केन्द्र शासित राज्यों की यही कहानी है। कांग्रेस ने उ.प्र. की मोहसिना किदवई को छत्तीसगढ़ से और तमिलनाडु के जयराम रमेश को आंध्र प्रदेश से टिकट दिया है। इसी प्रकार भाजपा ने आंध्र प्रदेश के वेंकैया नायडू को कर्नाटक से और प.बंगाल के चन्दन मित्रा को मध्य प्रदेश से टिकट दिया है। इनको क्यों अपने-अपने प्रदेशों में हार का सामना नहीं करने दिया जाता। आईने में ये अपनी सूरत देख लें। हारते हैं तो घर बैठें। हारने वाले को जीता घोषित करके हम उसके अहंकार को ही पोषित करते हैं। समय के साथ ऎसे ही लोग पार्टी के लिए घातक सिद्ध होते हैं। मन में जनता की नकार की ग्लानि भी काटती रहती है। आज इसी एक कारण से दोनों ही प्रमुख दलों में नेतृत्व का विकास नहीं हुआ। हारे हुए लोग ही ऊपर बैठकर नीतियां बनाते हैं। परोक्ष रू प में तो यह लोकतंत्र का अपराधीकरण ही हो रहा है। अपने प्रदेश के मतदाता द्वारा नकारे गए लोग अन्य प्रदेशों पर थोपे जाना भी तो अपराधीकरण है। ऎसे लोग संविधान का कितना सम्मान कर पाए हैं, देश के सामने है।

Delhi Ki "Barsat"

दिल्ली और मुंबई की बारिश का राष्ट्रीय चरित्र हो गया है। चार बूंदें गिरती हैं और चालीस खबरें बनती हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने अब तय कर लिया है, जो इन दो महानगरों में रहता है, वही राष्ट्रीय है। मुझे अच्छी तरह याद है, बिहार की कोसी नदी में बाढ आई। राष्ट्रीय मीडिया ने संज्ञान लेने में दस दिन लगा दिए, तब तक लाखों लोग बेघर हो चुके थे। सैकडों लोग मारे जा चुके थे। राहत का काम तक शुरू नहीं हुआ था। वो दिन गए कि मल्हार और कजरी यूपी के बागों में रची और सुनी जाती थी। अब तो कजरी और मल्हार को भी झूमने के लिए दिल्ली आना होगा। वर्ना कोई उसे कवर भी नहीं करेगा। 12 जुलाई को जब दिल्ली में बारिश आई, तो लोग घंटों जाम में फंसे रहे। पांच-पांच घंटे तक लोग सडकों पर अटके रहे। वैसे आम दिनों में दिल्ली में कई जगहों पर दो से ढाई घंटे का जाम होता ही है। लेकिन यह जब दोगुना हुआ, तो धीरज जवाब दे गया। जरूरी भी था कि इस दैनिक त्रासदी को कवर किया जाए, लेकिन जब यही बारिश जयपुर में आती, भोपाल में आती तो क्या उसे कवर किया जाताक् क्या जयपुर, भोपाल, इंदौर की बारिश के लिए कोई न्यूज चैनल अपना तय कार्यक्रम गिराताक् मुझे नहीं लगता है।
उसी तरह दिल्ली की गर्मी और मुंबई की उमस एक महत्वपूर्ण खबर है। मुंबई की लोकल में जरा-सा लोचा आ जाए, न्यूज चैनलों की सांसें रूक जाती हैं। पटना में कोई मालगाडी पलट जाए और घंटों जाम लग जाए, तो कोई अपनी ओबी वैन नहीं भेजेगा। दिल्ली में डीटीसी बस का किराया एक रूपया बढ जाए, तो न्यूज चैनल बावले हो जाते हैं। किसी को पता नहीं है कि जयपुर में किस तरह की आधुनिक बसें चलने लगी हैं, भोपाल या इंदौर में क्या सुविधाएं हैंक् अहमदाबाद में बीआरटीएस कॉरिडोर ने किस तरह दिल्ली की तुलना में कामयाबी पाई। जरूरी है कि पाठक और दर्शक को उनके अधिकार के बारे में बताया जाए।
राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र न बन पा रहा है, न बदल पा रहा है। सारे अंग्रेजी चैनलों ने बारिश की त्रासदी को सीमित मात्रा में दिखाया। हिन्दी चैनलों ने जितनी देर जाम, उतनी देर खबर के पैटर्न का अनुकरण किया। दिल्ली के लोगों की जरूरतों को भी अनदेखा नहीं कर सकते। लेकिन हर बार हंगामा दिल्ली को लेकर ही क्योंक् दिल्ली में स्थानीय न्यूज चैनल तो हैं ही। फिर भोपाल और जयपुर के लोग किसी राष्ट्रीय चैनल को देखने में अपना वक्त क्यों बर्बाद करेंक् वैसे भी कौन-सी राष्ट्रीय खबरें होती हैंक्
एक नुकसान और हुआ है। महानगरों में बारिश एक समस्या का रूपक बन गई है, जिसके आने से जाम लगता है। सडकें टूट जाती हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को राउंड पर निकलना पडता है। इसी बारिश में दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के जवान भीगते हुए रास्ते साफ कर रहे थे। कई जगहों पर सरकारी कर्मचारी काफी कोशिश कर रहे थे, लेकिन मीडिया ने इस प्रयास को दिखाया तक नहीं। किसी ने नहीं पूछा कि और कितनी लाख कारें सडकों पर उतरेंगीक् सिर्फ एकांगी तस्वीर पेश की कि ये जो बारिश आई है, वो तबाही है तबाही।
देश के जिलों में जाइए, बारिश होते ही लोगों के चेहरे पर चमक आ जाती है। अब तो बारिश में झूमते किसानों की भी तस्वीर नहीं छपती। धान की रोपनी करने वाली महिलाओं की तस्वीरें गायब हो गई हैं। सडकों पर पानी भरने के बाद उसमें नहाते बच्चों की तस्वीरें भी भूले-भटके छपती हैं। अब तो टीवी चैनलों ने बारिश को आतंककारी बना दिया। धडाम से ब्रेकिंग न्यूज का फ्लैश आता है- दिल्ली में भयंकर आंधी, मुंबई में पांच घंटे से लगातार बारिश। लोकल ट्रेन ठप। दहशत होने लगती है कि हाय रब्बा जाने कौन-सी आफत आने वाली है। यही हाल रहा, तो कुछ दिनों के बाद दिल्ली और मुंबई की नई पीढियां यकीन ही नहीं कर पाएंगी कि बारिश के मौसम में हम कजरी भी गाते थे। सावन में झूला भी झूलते थे।
बारिश का मतलब अब शहरी परेशानी बन कर रह गया है। नगर निगमों की नाकामी और घूसखोर इंजीनियरों की पोल खोलने का एक प्रत्यक्ष आयोजन! लेकिन क्या मीडिया उन इंजीनियरों का पीछा करता हैक् बताता है कि फलां सडक का ठेकेदार कौन था, इंजीनियर कौन थाक् वो बस शोर करता है। बारिश आई और तबाही आई। सडकों पर गड्ढों के लिए क्या बारिश ही जिम्मेदार हैक् एक इंजीनियर ने कहा कि बारिश से हम द:ुखी नहीं होते। रिपेयरिंग का नया बजट मिल जाता है कमीशन खाने के लिए। इस देश की नगर निकायों को कोई सुधार नहीं सकता। जब भी आप बारिश की खबर देखें, टीवी बंद कीजिए और छत पर जाइए। ये मार्केटिंग का दौर है। बारिश एक भयंकर 'इमेज' संकट से गुजर रही है। करतूत घूसखोरों की और बदनाम बारिश हो रही है। प्लीज, बारिश की मासूम फुहारों को बचाइए।